
cosmetic products
निर्देशांक
निर्देशांक
-
इतिहास
-
आधुनिक काल में अंगराग
-
वर्गीकरण
-
त्वचा पर अंगरागों का प्रभाव
इतिहास
सभ्यता के प्रादुर्भाव से ही मनुष्य स्वभावत: अपने शरीर के अंगों को शुद्ध, स्वस्थ, सुडौल और सुंदर तथा त्वचा को सुकोमल, मृदु, दीप्तिमान और कांतियुक्त रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि शारीरिक स्वास्थ्य और सौंदर्य प्राय: मनुष्य के आंतरिक स्वास्थ्य और मानसिक शुद्धि पर निर्भर है। तथापि, यह सत्य है कि किसी के व्यक्तित्व को आकर्षक और सर्वप्रिय बनाने में अंगराग और सुगंध विशेष रूप से सहायक होते हैं। संसार के विभिन्न देशों के साहित्य और सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि भिन्न-भिन्न अवसरों पर प्रगतिशील नागरिकों द्वारा अंगराग और गंध शास्त्र संबंधी कलाओं का उपयोग शारीरिक स्वास्थ्य और त्वचा की सौंदर्य वृद्धि के लिए किया जाता रहा है।
भारत के परिप्रेक्ष्य में अंगराग, सुगंध आदि की रचना व उपयोग को मनुष्य की तामसिक वासनाओं का उत्तेजक न मानकर समाज कल्याण और धर्म प्रेरणा का साधन समझा जाता रहा है। आर्य संस्कृति में अंगराग और गंध शास्त्र का महत्व प्रत्येक सद्गृहस्थ के दैनिक जीवन में उतना ही आवश्यक रहा है जितना पंच महायज्ञ और वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा का पालन। वैदिक साहित्य, महाभारत, बृहत्संहिता, निघंटु, सुश्रुत, अग्निपुराण, मार्कण्डेयपुराण, शुक्रनीति, कौटिल्य अर्थशास्त्र, शारंगधर पद्धति, वात्स्यायन कामसूत्र, ललित विस्तर, भरत नाट्यशास्त्र, अमरकोश इत्यादि में नानाविध अंगरागों और गंध-द्रव्यों का रचनात्मक और प्रयोगात्मक वर्णन पाया जाता है। सद्गोपाल और पी.के. गोडे के अनुसंघानों के अनुसार इन ग्रंथों में शरीर के विविध प्रसाधनों में से विशेषतया दर्पण की निर्माण कला, अनेक प्रकार के उद्वर्तन, विलेप, धूलन, चूर्ण, पराग, तैल, दीपवर्ति, धूपवर्ति, गंधोदक, स्नानीय चूर्णवास, मुखवास इत्यादि का विस्तृत विधान किया गया है।
गंगाधरकृत गंधसार नामक ग्रंथ के अनुसार तत्कालीन भारत में अंगरागों के निर्माण में मुख्यतया निम्नलिखित छह प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता था।
1. भावन क्रिया - चूर्ण किए हुए पदार्थों को तरल द्रव्यों से अनुबिद्ध करना।
2. पाचन क्रिया - क्वथन द्वारा विविध पदार्थों को पकाकर संयुक्त करना।
3. बोध क्रिया - गुणवर्धक पदार्थों के संयोग से पुनरुत्तेजित करना।
4. वेध क्रिया - स्वास्थ्यवर्धक और त्वचोपकारक पदार्थों के संयोग से अंगरागों को चिरोपयोगी बनाना।
5. धूपन क्रिया - सौगंधिक द्रव्यों के धुओं से सुवासित करना।
6. वासन क्रिया - सौगंधिक तैलों और तत्सदृश अन्य द्रव्यों के संयोग से सुवासित करना।
रघुवंश, ऋतुसंहार, मालतीमाधव, कुमार संभव, कादम्बरी, हर्षचरित और पालि ग्रंथों में वर्णित विविध अंगरागों में निम्नलिखित द्रव्यों का विस्तृत विधान पाया जाता है।
मुख प्रसाधन के लिए विलेपन और अनुलेपन, उद्वर्तन, रंजकनकिका, दीपवति इत्यादि; सिर के बालों के लिए विविध प्रकार के तैल, धूप और केशपटवास इत्यादि; आँखों के लिए काजल, सुरमा और प्रसाधन शलाकाएँ इत्यादि; ओष्ठों के लिए रंजकशलाकाएँ; हाथ और पाँव के लिए मेंहदी और आलता; शरीर के लिए चंदन, देवदारु और अगरु इत्यादि के विविध लेप, स्थानीय चूर्णवास और फेनक इत्यादि तथा मुखवास, कक्षवास और गृहवास इत्यादि। इन अंगरागों और सुगंधों की रचना के लिए अनुभवी शास्त्रों तथा प्रयोगादि के लिए प्रसाधकों तथा प्रसाधिकाओं को विशेष रूप से शिक्षित और अभ्यस्त करना आवश्यक समझा जाता था।
अंगरागशास्त्र की वैज्ञानिक कला द्वारा उन सभी प्रसाधन द्रव्यों का रचनात्मक और प्रयोगात्मक विधान किया जाता है जिनके उपयोग से मनुष्य शरीर के विविध अंगोपांगों और त्वचा को स्वस्थ, निर्दोष, निर्विकार, कांतिमान और सुंदर रखकर लोक कल्याण सिद्ध किया जा सके। भारत में पुरातन काल से अंगराग संबंधी विविध प्रसाधन द्रव्यों का निर्माण प्राकृतिक और मुख्यतया वानस्पतिक संसाधनों द्वारा होता रहा है। किंतु वर्तमान युग में आधुनिक विज्ञान की उन्नति से अंगरागों की रचना और प्रयोग में आने वाले संसाधनों की संख्या का विस्तार इतना बढ़ गया है कि अन्य वैज्ञानिक विषयों की तरह इस विषय का ज्ञानार्जन भी विशेष प्रयत्न द्वारा ही संभव है।
त्वचा पर अंगरागों का प्रभाव
मनुष्य की त्वचा से एक विशेष प्रकार का स्निग्ध तरल पदार्थ निकला करता है। दिन रात के 24 घंटों में निकले इस स्निग्ध तरल पदार्थ की मात्रा दो ग्राम के लगभग होती है। इसमें वसा, जल, लवण और नाइट्रोजनयुक्त पदार्थ रहते हैं। इसी वसा के प्रभाव से बाल और त्वचा स्निग्ध, मृदु और कांतिवान रहते हैं। यदि त्वग्वसा ग्रंथियों में से पर्याप्त मात्रा में वसा निकलती रहे तो त्वचा स्वस्थ और कोमल प्रतीत होती है। इस वसा के अभाव में त्वचा रूखी-सूखी और प्रचुर मात्रा में निकलने से अति स्निग्ध प्रतीत होती है। साधारणतया शीतप्रधान और समशीतोष्ण स्थलों के निवासियों की त्वचाएँ सूखी तथा अयनवृत्त (ट्रॉपिक्स) स्थित निवासियों की त्वचाएँ स्निग्ध पाई जाती है। शारीरिक त्वचा को स्वच्छ, स्वस्थ, सुंदर, सुकोमल और कांतियुक्त बनाए रखने के लिए शारीरिक व्यायाम और स्वास्थ्य परम सहायक हैं। तथापि इस स्वास्थ्य को स्थिर रखने के विविध अंगरागों का सदुपयोग विशेष रूप से लाभप्रद होता है। शारीरिक त्वचा की स्वच्छता और मृत कोशिकाओं का उत्सर्जन, स्वेद ग्रंथियों को खुला और दुर्गंधरहित करना, धूप, सरदी और गरमी से शरीर का प्रतिरक्षण, त्वचा के स्वास्थ्य के लिए परमावश्यक वसा को पहुँचाना, उसे मुहाँसे, झुर्रियों और काले तिलों जैसे दागों से बचाना, त्वचा को सुकोमल और कांतियुक्त बनाए रखना, उसे बुढ़ापे के आक्रमणों से बचाना और बालों के सौंदर्य को बनाए रखना इत्यादि अंगरागों के प्रभाव से ही संभव है। शास्त्रीय विधि से निर्मित अंगरागों का सदुपयोग मनुष्य जीवन को सुखी बनाने में अत्यंत लाभप्रद सिद्ध हुआ है।